वास्तुशास्त्र भारतीय संस्कृति की सबसे समृद्ध परम्परा का दर्पण है, जिसके अंतर्गत न केवल पूर्वकालीन अपितु तात्कालिक जीवन यापन की शैली का विस्तार, विभिन्न धार्मिक एवं लौकिक मान्यताओं का उत्कृष्ट प्रयोग तथा समाजोपयोगी विभिन्न कलाओं का समावेश इत्यादि दृष्टिगोचर होता है । वास्तुशास्त्र का आरंभ वैदिक काल से हि हो जाता है ऋग्वेद की विभिन्न ऋचाओं में बार-बार वास्तुदेवता से प्रार्थना की गई है कि वह हमारी रक्षा करें, भारतीय चिन्तन के आदि स्रोत के रूप में प्राप्त वेदों को चार भागों में विभाजित किया गया है तथा उनके चार उपवेदों का भी वर्णन मिलता है जिसमें ऋग्वेद को आयुर्वेद, यजुर्वेद को धनुर्वेद,सामवेद को गान्धर्व वेद,अथर्ववे को स्थापत्य वेद के रूप में जाना जाता है राजा भोज नें अपने ग्रन्थ में वास्तुशास्त्र को तीन भेदों में विभाजित किया है स्थापत्य, शिल्प, चित्र अतः स्थापत्य कला वास्तुशास्त्र का हि एक अभिन्न अङ्ग है जिसे उपवेद के रूप में ग्रहण किया गया है । इस प्रकार यह शास्त्र वैदिक काल से आरम्भ होकर शुल्व सूत्रों से होता हुआ पुराणों से लेकर शास्त्रीय ग्रंथों तक अपने विस्तृत इतिहास को प्रदर्शित करता है । इसी क्रम में देखा जाए तो वास्तु शब्द का सीधा तात्पर्य निवास स्थान से हि है, क्यूंकि संस्कृत व्याकरण के अनुसार इसकी व्युत्पत्ति वस् धातु से हुई है जिसका प्रयोग निवास के अर्थ में किया जाता है । निवास का चिन्तन करने पर सर्वप्रथम गृह का हि दृश्य सामने आता है । भारतीय मानीषियों नें चारों आश्रमों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गृहस्थ आश्रम को ही माना गया है इसी संदर्भ में भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है “ गृहस्थस्य क्रियाः सर्वाः न सिद्धयन्ति गृहं विना ” गृह के अभाव में गृहस्थाश्रम कि विभिन क्रियाओं को साधा नहीं जा सकता तथा साथ हि पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धी हेतु धर्म-अर्थ-काम की प्राप्ति के लिय वास्तुशास्त्र में गृह को हि एक अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया गया है “….धर्मार्थकामप्रदम् ”[1] अतः वास्तुशास्त्र को आवासीय चिन्तन की दृष्टि से पाँच मुख्य बिंदुओं में बाँटा जा सकता है जिसमें भूमिचयन, दिक् एवं कालनिर्धारण, वास्तुपद विन्यास, शालविधान, शिलान्यास एवं गृह निर्माण विधि का समावेश किया जा सकता है ।
वैसे तो वास्तुशास्त्र स्वयं में पूर्ण रूप से वैज्ञानिक और आधुनिक है तथापि वास्तुशस्त्र में भवन निर्माण के आधुनक विषय बहुतलीय भवनों में शाल विधान का वैज्ञानिक पक्ष को यहाँ स्पष्ट करने का में प्रयास कर रहा हूँ ।
विभिन्न शालीय भवनों के शास्त्रीय पक्ष को सार रूप में कहा जाय तो यह स्पष्ट होता है कि दक्षिण और पश्चिम दिशा में किया गया गृह निर्माण हि प्रशस्त माना गयाा है, याहि दोनों दिशाएं भवन के निर्माण के लिय प्रशस्त बताए गए हैं । वास्तुशास्त्र में जिन सिद्धांतों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण देखा जाता है वह वास्तव में विज्ञान की भौतिकी physics के तीन मुख्य सिद्धांतों पर आधृत है । चुबकीय शक्ति, गुरुत्वाकर्षण शक्ति तथा सौर ऊर्जा ।
चुंबकीय शक्ति-
चुंबकीय शक्ति को भौतिकी में दो दृष्टि से प्रतिपादित किया जाता है एक पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति के रूप में द्वितीय चुबकीय शक्ति के रूप में जिसका प्रयोग विद्युत धार में किया जाता है । यह शास्त्र भूमि से सम्बन्धित शास्त्र है अतः यहाँ भूमि के चुंबकीय शक्ति को हि प्रस्तुत कर रहा हूँ । आरंभिक वैज्ञानिकों का यह मानना था कि पृथ्वी के भीतर कोई बहुत बड़ी चुंबक है जिसका प्रभाव हमें मिलता है किन्तु वर्तमान में इसे इस प्रकार स्पष्ट किया जाता है कि पृथ्वीका चुंबकीय क्षेत्र इसके भीतर विद्यमान तरलीय लोह के संवाहक गति के कारण उत्पन्न विद्युत धाराओं के परिणाम के रूप में सामने आता है ( The magnetic field is now thought to arise due to electrical currents produced by convective motion of metallic fluids in the outer core of the earth )[1] पृथ्वीका उत्तरीय चुंबकीय ध्रुव वर्तमान में 79.74˚ उत्तरीय अक्षांश एवं 71.8˚ दक्षिणीय देशांतर पर स्थित है तथा दक्षिणीय ध्रुeव 79.74˚ दक्षणीय अक्षांश एवं 108.22˚ पूर्वीय देशान्तर पर स्थित है । इन ध्रुवों के मध्य आरम्भ से हि लोगों में कुछ भ्रम रहा है वस्तुतः पृथ्वीके दो भौगोलीय ध्रुव तथा दो चुबकीय ध्रुव हैं इसका उत्तरी चुबकीय ध्रुव दक्षिणी भौगोलीय ध्रुव के पास स्थित है तथा दक्षिणी चुबकीय ध्रुव उत्तरी भौगोलीय ध्रुव के पास स्थित है, पृथ्वी से निकलने वाली चुंबकीय किरणें उत्तरीय चुंबकीय ध्रुव से निकलकर दक्षणीय चुंबकीय ध्रुव की और चलती हैं ।
वस्तुतः यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध भी हो चुका है कि उत्तरी भौगोलीय ध्रुव में प्रतिजैविक गुणों का भंडार है अतः यह संक्रमण को कम व नियंत्रित कर सकता है तथा दक्षिणी ध्रुव इन क्रियाओं को और अधिक बढाता है ।[2]
अतः यह स्पष्ट होता है कि उत्तर दिशा को खाली रखना तथा अधिक ऊर्जा पूर्ण रखना मानव जीवन व प्राणि मात्र के लिय निश्चित हि लाभकारी है इसलीय भारतीय ऋषिमुनियों नें उत्तर और ईशान को अधिक स्वच्छ, हल्का, सौन्दरीय पूर्ण रखने का नियम बतया है । मानव को जीवन जिणे कि लिय प्राणवायु कि आवश्यकता होती है जो वह मुख से लेता है और दूषित वायु को गुदा मार्ग से निकाल देता है उसी प्रकार भूमि मेण प्राण वायु का स्रोत ईशान से आरंभ होकर अग्नेय व वायव्य से होती हुए नैऋत्य को जताई है ।
गुरुत्वाकर्षण शक्ति-
यह शक्ति पृथ्वी कि प्रधान शक्ति है, जिसके कारण हि समस्त वस्तुएँ पृथ्वी के ऊपर स्थिर रहती है । वस्तुतः वास्तुशास्त्र में पृथ्वी की इस शक्ति का भी पूर्ण समावेश मिलता है वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो गरुत्वाकर्षणं एक पदार्थ का दूसरे की ओर आकर्षित होने की प्रवृत्त है, तथा इस प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाली शक्ति को गुरुत्वशाक्ति कहते हैं । इस विषय में आधुनिक पुस्तकों का अध्यानन करने पर पता चलता है कि इस सिद्धांत का सबसे पहले गणितीय सूत्र देने वाले वैज्ञानिक आइजक न्यूटन को मना गया है तथा इनसे पूर्व गैलीलियो गैलिली को इस सिद्धांत का ज्ञाता माना जाता है[3] किन्तु वास्तविक इतिहास पर दृष्टिपात किया जाए तो इन दोनों से हि कई वर्षों पूर्व आचार्य वराहमिहिर तथा आचार्य भास्कराचार्य को इस विषय का पूर्ण ज्ञान था इसका प्रमाण उनकी लिखी पुस्तकों से प्राप्त होता है अतः यः स्पष्ट है कि भारत में यह ज्ञान आदिकाल से ही था इसी कारण इसका प्रयोग वास्तुशास्त्र में पूर्ण रूप से देखने को मिलता है ।
इसी गुरुत्व शक्ति के कारण हि वास्तु ग्रंथों में “ ……..शैले अनन्तं फलं गृहे[4] ” यह सिद्धांत मिलता है जिसमें पत्थर से बने घर को अनन्त फल देने वाला मना गया है जिसका कारण सीधा प्रतीत होता है क्यूंकि तृण, मिट्टी व लकड़ी आदि से बने घर की तुलना में पत्थर के बने घर ज्यादा घनत्व वाला होता जो अनन्त काल तक स्थिर और सुरक्षित भी रहेगा क्यूंकि यह सिद्धांत गुरुत्व शती का है की जो पदार्थ जीतने अधीक द्रव्यमान का होगा वह उतनी से तेजी के साथ व स्थिरता के साथ भूमि पर स्थित रहता है । पंचतत्व के आधार पर् देखा जाए तो नैऋत्य कोण में पृथ्वी तत्व की प्रधानता रहती है अतः दक्षिण तथा पश्चिम की और भवन का निर्माण करना अधिक स्थिर व सुरक्षित रहेगा इसलिए विभिन्न शाल युक्त भवनों में दक्षिण तथा पश्चिम को हि प्रशस्त मना गया है ।
सौर ऊर्जा–
सौर ऊर्जा से तात्पर्य है सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा जिसके प्रभाव से मानव खुद में ऊर्जा, स्फूर्ति और गतिशीलता का अनुभव करता है, वास्तुशास्त्रीय दृष्टि में यहाँ सूर्य की पराबैंगनी किरणों के प्रभाव को ग्रहण किया जाता है इनका लाभ मानव को सर्वदा मिलता रहे इसी दृष्टिकोण से शास्त्रीयआचार्यों नें पूर्व व उत्तर दिशा को खुला, हावदार तथा खिड़कियों वाला बनाने की सलाह दी है । जिससे की सूर्य से मिलने वाला प्रकाश, ऊष्मा व ताप युक्त ऊर्जा का मानव अधिकाधिक लाभ ले सके । सूर्य से प्राप्त होने वाली किरणों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है पराबैंगनी किरणें, वर्णक्रम प्रकाश , रक्ताभ किरणें ।
पराबैंगनी किरणें मुख्य रूप से सूर्य से प्राप्त होति हैं आजकल इसके लिय कुछ अन्य उपकरण भी प्राप्त हैं, यह किरणें लाभकारी होने के साथ साथ हानिकारक प्रभाव भी प्रदान करती हैं जिससे बेसल सेल कार्सिनोमा /स्क्वैमस सेल कार्सिनोमा/ मेलेनोमा नामक त्वचा कैंसर के रोग होने कि संभावनाएं बढ़ जाति हैं इनका का मुख्य कारण पराबेंगनी किरणें हि होती हैं किन्तु तथापि यह किरणें शरीर में विटामिन डी बनाने में सहायक होती हैं, सोरायसिस ( psoriasis ) जैसी त्वचा रोग को समाप्त करती है, पीनियल ग्रंथि ( pineal gland ) को उत्तेजित ट्राइप्टामाइन्स जैसे मूड को अच्छा करने वाले कैमिकल काा सराव करती हैं, जीवजंतुओं को देखने में सहायक होती हैं तथा पृथ्वी पर् पैदा होने वाले सूक्ष्म कीटाणुओं का नाश करती हैं ।[5] किसी भी वास्तु का अत्यधिक सेवन तो कष्टकारी बनता हि हैं यह सर्वविदित है । इसी कारण वक्ष हमारे ऋषि मुनियों नें पूर्वके क्षेत्र को खुला रखने की सलाह दि ताकि इन लाभप्रद किरणों का शारीरिकलाभ लिया जा सके ।
वर्णक्रम प्रकाश इंद्रधनुष से सम्बन्धित है, जिसमें विभिन्न सात रंगों का समावेश होता है यह सभी रंग इस प्रकार इस प्रकार आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं की इनकें कोई जोड़ नजर नहीं आता है, तकनीकी भाषा में इसे संतात्यक/संतात्य ( continuum/continuous ) कहते हैं । रक्ताभ किरणें सर्वाधित ऊष्णता वाली किरणें होती हैं, जो दोपहर बाद सूर्य का सम्मुख आने पर महसूस होती हैं यह अत्यादिक हानिकारक भी होती हैं ।
इस प्रकार इन वैज्ञानिक कारणों से यह सिद्ध होता हि कि वास्तुशास्त्र में भवन निर्माण की शाल परिपाटी का जो वर्णन किया गया है तथा जिन नियमों को भवन के निर्माण में सुखप्रद व लाभप्रद माना गया है वह सभी निश्चित हि आधुनिक और वैज्ञानिकीय दृष्टिकोण से भी पूर्णतयः सही है तथा शास्त्र में वर्णित उत्तम सुख को देने वाले शालभवनों काा हि निर्माण किया जाना चाहिय व यथा संभव इन नियमों को ध्यान में रख कर हि गृह निर्माण काा कार्य करना चाहिय याहि मेरे इस सम्पूर्ण शोधपत्र का सार है ।
[1] Ncert class 12th, chapter-5, the earth’s magnetism
[2] रहस्यावरण से मुक्ति, अश्विनी कुमार, अ.-2, पृ.-28
[3] Newton’s law of universal gravitation Wikipedia.org
[4] बृहद-वास्तुमाला,पृ.-2,श्लोक-5
[5] Dr. Ayush pandey, MBBS, Ultraviolet rays uses,benefits and precautions. Myupchar.com